के सी पिप्पल जी का नाम उन लोगों में शुमार है, जिन्होंने नौकरशाह रहते
हुए भी बहुजन समाज के लिए काफी काम किया है और उनका ये सिलसिला अब भी अनवरत जारी
है । भारत सरकार के भारतीय आर्थिक सेवा विभाग से अपर आर्थिक सलाहकार पद से
सेवानिवृत होने के बाद भी वो राष्ट्र के समग्र विकास की दिशा में अपनी टीम के साथ
शोधरत हैं। 15 जनवरी 1954 में कासगंज (कांशीराम
नगर) जिले के नवाब मोहल्ले में जन्मे के सी पिप्पल (IES) के जीवन पर बहुजन नायक
कांशीराम जी का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है और उनके संपर्क में आने पर उन्होंने
युवावस्था से ही बहुजन समाज को जागरुक करने और कैडर कैंप देने का काम किया है ।
पिछले दिनों ‘पड़ताल’ की टीम ने उनसे कई पहलुओं पर ख़ास बातचीत की थी, जिसके कुछ ख़ास अंश पेश
हैं।
बहुजन समाज को बनाने, जागरुक करने और उत्थान के लिए आप लंबे समय से काम कर रहे
हैं, आज के संदर्भ में
आप उसे कैसे देखते हैं ?
मैं कांशीराम जी से बहुत प्रभावित हूं और 1982 से उनके साथ जुड़ा था।
उस समय इलाहाबाद में मुझे काम मिला कि हमारे समाज के जो युवा हैं, उन्हें कैसे समाज के साथ
जोड़ा जाए। सिर्फ एससी में ही करीब 2000 जातियां हैं ।
एससी/एसटी और ओबीसी में कुल 6743 जातियां हैं। जब तक हम
इन जातियों को इकटठा नहीं करेंगे तब तक हमारा समाज को जोड़ने का मिशन पूरा नहीं हो
सकता। कांशीराम जी को बहुत पहले से अहसास था, जिनकी संख्या बहुत कम है वो राजनीतिक रूप से ज्यादा सक्षम
दिखाई देते हैं। कांशीराम जी का कहना था कि जब तक हम इन सबको मानसिक रूप से इकट्ठा
नहीं करते, तब तक हम इन्हें
फिजिकली भी इकट्ठा नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने एक प्रक्रिया चलाई। उस प्रक्रिया
का नाम उन्होंने ‘कैडर कैंप’ दिया और इलाहबाद से उसकी शुरुआत हुई थी। क्योंकि सबसे
ज्यादा ब्राह्मणवाद उन्हें इलाहबाद में ही दिखा था। ‘बाबा साहेब के बब्बर शेरों, मनुवाद की जड़ें
उखेड़ों’ और वो जड़ें इलाहबाद में थीं, इसीलिए यहां से शुरुआत की
गई। जिससे बहुजन समाज में चेतना जागी और 1989 में वो वोट में तब्दील हुआ। उस मेहनत का परिणाम भी दिखा, लेकिन जब से ‘कैडर कैंप’
बंद हुए उसका बहुत नुकसान हुआ, फिर से सबको एक होना होगा और ‘कैडर कैंप’ शुरू करने होंगे।
दलित समाज का विकास का आर्थिक रूप से नहीं हो पाया है, उसे कैसे आगे बढ़ाया जा
सकता है?
आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में असमानता होने के कारण हम
अपने राजनीतिक अधिकारों का उपयोग समाज के लिए नहीं कर पा रहे हैं। हमारे वोट पैसे
वाले लोग खरीद ले जाते हैं। हमारे समाज के सामने अभी भी रोजी-रोटी की समस्या बनी
हुई है। सिर्फ चार फीसदी लोग ही अच्छी स्थिति में पहुचे हैं, इनमें ज्यादातर नौकरीपेशा
लोग हैं। हमें आर्थिक फ्रंट पर बहुत काम करने की जरूरत है। सरकारें जो बजट बनाती
है, उनमें दलित
उत्थान के लिए अलग से बजट की व्यवस्था होनी चाहिए। रोजगार बढ़ाने के प्रयास करने
चाहिए।
दलितों को आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए सरकारी योजनाएं
आखिर जरूरतमंद लोगों तक क्यों नहीं पहुंच पाती है?
सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, जैसे स्टार्ट अप, स्टैंड अप, मुद्रा आदि, लेकिन लोगों तक उनका लाभ
पहुंचता ही नहीं, क्योंकि वो
जानकारी ही उन तक नहीं पहुंच पाती है। जो सामाजिक संगठन हैं, वो राजनीति की बात तो
करते हैं, लेकिन आर्थिक रूप
से समाज को मजबूत बनाने के लिए जागरूक करने की बात नहीं करते। समाज के लोगों को
उद्योग धंधों और व्यापार की तरफ बढ़ने की शिक्षा देनी चाहिए और उन्हें उसके लिए
रास्ते दिखाने चाहिए। जो समाज के उद्योगपति हैं, उन्हें इस काम के लिए आगे आना चाहिए। डिक्की
जैसी संस्था को आगे आकर लोगों को व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, लेकिन ऐसा धरातल पर होता
दिख नहीं रहा है। जबकि उसे वरीयता के आधार पर ये काम करना चाहिए।
वर्तमान में आप बहुजन राजनीति को कहां खड़ा देखते हैं?
देखिए आज के दौर में बहुजन राजनीति बहुत बिखराव में है, ये
बहुत बड़ी विडंबना है, इसे हाशिए से बाहर लाने के लिए हम सबको एकजुट होकर काम करना
होगा, मैं फिर से दोहराता हूं मान्यवर कांशीराम जी का बताया रास्ता आज के दौर में
सबसे ज्यादा प्रासंगिक है और एकमात्र विकल्प है।
‘पड़ताल’ के लिए
क्या कहेंगे, सोशल मीडिया की
कितनी महत्ता है ?
ये बहुत अच्छा प्रयास है। वंचित समाज की आवाज कोई बनना ही
नहीं चाहता । ऐसे में ‘पड़ताल’ की ये कोशिश बहुत ही सराहनीय है । समाज के लिए ये
बहुत ही उपयोगी साबित होगा । मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।