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दलित साहित्य हमें समाज में गैरबराबरी, भेदभाव के खिलाफ आवाज़ देने का कार्य करता है- प्रोफेसर इशीदा

जापान में टोक्यो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इशीदा से अलेस के पदाधिकारियों की बातचीत पर आधारित डॉ. ममता की विस्तृत रिपोर्ट।

दिनांक 27 सितंबर 2022 को जापान (टोक्यो विश्वविद्यालय ) के प्रोफेसर हिदेआकि इशीदा अलेस के ऑफिस में आए। प्रोफेसर इशीदा अपने लेखन और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के बहुत बड़े जानकार माने जाते हैं। उन्होंने भारत की जाति व्यवस्था तथा जापान में कुछ इसी तरह ही विभेदकारी व्यवस्थाओं को जाना और गहन अध्ययन के बाद इस स्थिति को सुधारने के प्रयासों में अपना जीवन लगा दिया।  
 
प्रोफेसर इशीदा जब भी भारत आते हैं, तो वो भारत के दलित साहित्यकारों, संस्थाओं औप बुद्धिजीवियों से मिलकर यहाँ की सामाजिक, सांस्कृतिक ,राजनीतिक और साहित्यिक परिस्थितियों को जानने के लिए उत्साहित दिखते हैं। इसी कड़ी में वो दिल्ली में अंबेडकरवादी लेखक संघ यानी अलेस की ओर से आयोजित एक बैठक में शामिल हुए और उन्होंने हमें अपने अनुभवों और ज्ञान से लाभान्वित किया।

प्रोफेसर इशीदा के साथ बातचीत के दौरान उनसे उनके अनुभवों के विषय में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे सर्वप्रथम भारत लगभग 50 वर्ष पूर्व आये थे तब वे एक छात्र थे। अपने छात्र जीवन से जुड़े पहलुओं को बताते हुए उन्होंने कहा कि एम.ए. के दौरान उन्होंने प्रेमचंद तथा अन्य साहित्यकारों को पढ़ा और जाना तथा जैनेन्द्र के साहित्य को उन्होंने काफी विस्तार से समझने के लिए उन्हें खूब पढ़ा । मनोवैज्ञानिक साहित्यकारों में जैनेन्द्र महत्त्वपूर्ण रचनाकार हैं इसी के साथ उन्होंने इलाचंद्र जोशी को भी पढ़ा। भारत में रहते हुए उन्हें यहाँ की सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के विषय में जानकारी हुई तो उनकी उत्सुकता इस विषय पर आधारित लिखे साहित्य को पढ़ने की हुई। इसी खोज में उन्हें हिंदी से निराशा हुई क्योंकि लगभग 70 के दशक में हिंदी भाषी, दलितों पर न के बराबर लिख रहे थे। अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए वे मराठी भाषा में लिखा जा रहे दलित साहित्य की ओर झुके। हालांकि उन्हें मराठी भाषा तब तक आती नहीं थी। एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वे जापान लौटे तो उन्होंने मराठी भाषा का अध्ययन करना सीखा और मराठी साहित्य को पढ़ना शुरू किया। इस प्रकार कि अध्ययनशीलता वाकई चंद लोगों में होती है जो अपनी जिज्ञासाओं को लेकर इतने जिजीविषी और कर्मठ होते हैं, उनमें से ही एक प्रोफेसर इशीदा ने मराठी भाषा में लिखे जा रहे दलित साहित्य को पढ़ना और उसपर लिखना शुरू कर दिया।  
 
‘सारिका’ पत्रिका का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि उस समय ‘सारिका’ द्वारा दलित विशेषांक निकाला गया जिसमें मराठी में दलित साहित्य को जगह दी गई और दलित साहित्य को जानने में मदद मिली। लगभग 90 के दशक में हिंदी में दलित साहित्य लिखा जाने लगा और ओमप्रकाश वाल्मीकि तथा मोहनदास नैमिशराय का जिक्र करते हुए उन्होंने उनकी कई कहानियों पर भी अपनी राय व प्रश्व रखे। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘शवयात्रा’ कहानी ने उनको एक नये दलित विमर्श की ओर खींचा। भारत में अपनी साहित्यिक यात्राओं से मिले साथियों का जिक्र करते हुए उन्होंने ‘हंस’ से जुड़ने तथा 2004 में ‘दलित विशेषांक’ के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर श्यौराज सिंह बैचेन और जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अजय नावरिया से हुई उनकी मुलाकातों का जिक्र किया जिससे लगातार उनका संबंध दलित साहित्य से जुड़ा रहा। ‘हंस’ पत्रिका से उनका विशेष लगाव दिखा क्योंकि वे 2004 से अब तक हंस से जुड़े हैं तथा इस यात्रा के दौरान भी वे हंस के दफ्तर भी गए। दलित साहित्य पर उनके विचार जानते हुए एक बात निकल कर आती है जो काफी वाजिब प्रश्नों को लिए हुए दिखी।  

प्रोफेसर इशीदा कहते हैं कि दलित कौन है और क्या दलित ही दलित साहित्य लिख सकते हैं? जैसे प्रश्न मराठी से उठते-उठते हिंदी तक भी पहुंचे हालांकि वे यह कहते हैं कि मराठी में यह बहस काफी पहले से चली ओर अब शांत हो चुकी है तो फिर क्यों हिंदी दलित साहित्यकारों में इस विषय पर पुन: बहस हो रही है। वे इन सब बातों को उलझाने की बात कहते हुए इससे बाहर निकलने की हिदायत भी देते हैं। साथ ही वे बैठक में उपस्थिति सभी गणमाननीयों से यह जानना की इच्छा रखते हैं कि आप इस विषय पर क्या सोचते-समझते हैं। कवि सुदेश तंवर ने कहा कि दलित साहित्य वैचारिकी की लड़ाई है न कि किसी जाति विशेष से प्रतिक्रिया स्वरूप लिखा साहित्य है। जेनयू के शोधार्थी अशोक बंजारा इस प्रश्व पर अपनी राय देते हुए दलित साहित्य को वैश्विक साहित्य मानते हुए साहित्य को मनुष्य की गरिमामय जीवन को सर्वोपरियता देना माना है। डॉ. उमेश बाबू के अनुसार- साहित्य कोई भी लिख सकता है। दलितों की सांस्कृतिक विविधता मुख्य धारा के समाज से भिन्न है तथा लेखकों को विषय वस्तु पर ध्यान रखकर पूर्वाग्रहों को त्यागकर साहित्य लेखन करना चाहिए। इसी कड़ी में अलेस की उपाध्यक्ष डॉ. हेमलता दलित साहित्य पर प्रकाश डालते हुए दलित साहित्य को धार्मिक पाखंड से मुक्त मानती हैं जिसमें लेखक की भाषा जन भाषा है जिसे आज भी मुख्य धारा के लोग पचा नहीं पा रहें हैं तथा लगातार दलित साहित्य की भाषा के साथ इसके अस्तित्व को भी नकारते दिखते हैं जो यह मानते हैं कि जातिवाद की कोई समस्या आज समाज मे है ही नहीं। इस तरह की सोच कुछ अध्यापक भी रखते हैं परन्तु वे स्वयं ही अपने छात्रों के साथ जातिवादी भेदभाव भी रखते हैं। आज भी जातिवाद शैक्षिणक संस्थाओं में दिख ही जाता है जिसका जीता जागता उदाहरण अभी हाल में राजस्थान के इंद्रजीत मेघवाल के साथ हुई घटना है। डॉ अशोक कुमार यह सवाल करते हैं कि दलित साहित्य का क्या भविष्य है जिस पर अपनी राय देते हुए प्रोफेसर इशीदा कहते हैं कि जब तक भारत में जातिव्यवस्था बनी रहेगी दलित साहित्य लिखा और पढ़ा जाता रहेगा।   

जापान में जातिवाद जैसी मिलती जुलती व्यवस्था पर बात करते हुए इशीदा जी बताते हैं कि 300 -400 वर्ष पूर्व वहां भी कुछ ऐसी ही विभेदकारी व्यवस्था पाई जाती थी। इस भेदकारी व्यवस्था को लगभग 200 वर्ष पूर्व ही कानूनी जामा पहनाकर इसे दंडित घोषित कर दिया गया। 300 वर्ष पूर्व जापान की सामाजिक व्यवस्था को बताते हुए वे अलग-अलग पायदानों व श्रेणियों की बात करते हैं। जैसे क्षत्रियों को पहले, खेती-किसानों को दूसरे,दस्तकारों या शिल्पकारों को तीसरे पायदान में, व्यापारियों को चौथे पायदान में रखा जाता है। वे बताते हैं कि 70-80 के दशक तक जापानी दलित साहित्यकार काफी चर्चित थे तथा वे दलित रचनाएं लिख रहे थे परन्तु 90 के दशक तक आते-आते इस प्रकार का लेखन लगभग समाप्त ही हो गया है तथा अब वहां दलित विषय वस्तु से रचित रचनाओं की पत्रिकाएं नहीं आ रही, जिसकी प्रमुख वजह जापान में भेदभावपूर्ण व्यवस्था की समाप्ति तथा शहरीकरण है। लगभग ना के बराबर वहां भेदभाव की परंपरागत व्यवस्था है जो कुछ अभी बाकि है वो भी कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में ही है वह भी गिने चुने परंपरागत घरों में ही मौजूद है।  
 
इशीदा जी की इस बात से दो बाते स्पष्ट होती है एक तो यह कि जातिवाद भी समाप्त हो सकता है जरूरत है तो जातिवाद के खिलाफ संघर्ष की गति को तेज करना तथा दूसरी बात जिसे डॉ. भीमराव अंबेडकर भी कहते थे कि ‘भारत के गाँव जातिवाद के पोषण के अड्डे / गढ़ हैं’ इसी बात को ध्यान में रखते हुए भी गांवों की परंपरागत रूढ़ियों को तोड़कर व्यक्ति को शिक्षा के जरिये अपने व्यक्तित्व और समाज का निर्माण करना चाहिए जो मानवतावादी हो। अपने भारत आगमन के पूर्व अनुभवों को याद करते हुए प्रो. इशीदा जी, कवि सुदेश तंवर का भी जिक्र करते हैं कि किस तरह से उन्होंने उनकी मदद की और अपनी आत्मीयता का परिचय देते हुए उन्हें सुरक्षित उनके गंतव्य तक पहुँचाया। कवि सुदेश तंवर ने कहा कि उन्हें ये घटना धुंधली-धुंधली याद है परन्तु इशीदा कहते हैं कि उन्हें वह सब अच्छे से याद आता है कि किस प्रकार देर रात सुदेश तंवर ने उन्हें प्रगति मैदान तक पहुंचाया। भारतीयों के साथ उनके अच्छे अनुभवों को जानकर प्रसंनता भी होती है तथा उनका भारतीय साहित्यकारों के प्रति सम्मान भी साफ झलकता है।  
 
अलेस द्वारा आयोजित इस बैठक में विश्वविद्यालयों के अध्यापक और शोधार्थी भी जुड़े जिनसे सभी ने अपनी जिज्ञासाओं को सवालों के जरिये व्यक्त किया और प्रोफेसर इशीदा जी ने भी उनका सहज, सरल और आत्मीयता से जवाब दिया। अलेस के साथियों ने उनका हार्दिक स्वागत किया,उन्हें गौतम बुद्ध की प्रतिमा ,शाल और डॉ.बाबा साहेब अंबेडकर की तस्वीर भेंट की। इस दौरान सुदेश तंवर ,मामचंद सागर, डॉ.अशोक कुमार,डॉ.हेमलता, संजीव कुमार डांडा, डॉ.उमेश, प्रोफेसर प्रमोद मेहरा, अशोक बंजारा, डॉ.ममता और अलेस अध्यक्ष डॉ.बलराज सिहमार मौजूद रहे तथा आनलाइन मोड़ में जापान से डॉ.सूरज बड़त्या, कश्मीर से डॉ.मुकेश मिरोठा, महाराष्ट्र (मुंबई) से डॉ.नियति राठौड़ और भी कई अन्य साथी भी इन बैठक का हिस्सा बने। बैठक में बातचीत के दौरान प्रोफेसर इशीदा ने कहा कि साहित्य में मानवीय भाव,समता, समानता और न्याय की बात आती है तथा दलित साहित्य गैरबराबरी के खिलाफ लिखा गया साहित्य है जो हमें समाज में गैरबराबरी, भेदभाव के खिलाफ आवाज़ देने का कार्य करता है। यह साहित्य बुद्ध, कबीर, फूले,अंबेडकवादी वैचारिकी को केन्द्र में रखकर लिखा गया साहित्य है। इस साहित्य पर मराठी साहित्य से भी बहुत कुछ मिला है। उन्होंने अपनी बातचीत में नामदेव ढसाल,ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय की चर्चा कई बार की। बातचीत की शुरुआत मे साहित्यकार सुदेश तंवर ने इशिदा जी का भारत आगमन पर स्वागत करते हुए दलित साहित्य के बारे में प्रश्न पूछे,जिनका इशिदा जी ने सधे हुए, नपे तुले शब्दों में जबाब दिया। इसके बाद डॉ.हेमलता जी ने भी इशिदा जी से कहा कि आज भी दलित समाज के लोगों का सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक शोषण हो रहा है जो साहित्य में काफी चित्रित किया जा रहा है। बहुत सारे साहित्यकार इन सब मुद्दों को लेकर काफी मुखर हो रहे हैं। वे हर समस्या का समाधान अंबेडकवादी दृष्टिकोण से चाहते हैं। इनके बाद डॉ.अशोक कुमार ने भी इशिदा जी से दलित साहित्य और समाज के बारे में उसकी स्वीकार्यता के बारे में पूछा तो इशिदा जी ने बड़े नपे तुले शब्दों में बताया कि दलित साहित्य आज जिस मुकाम पर जा पहुंचा है उसे पढ़ने वाले लोगों की तादाद दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। दलित साहित्य समाज के पच्चासी प्रतिशत लोगों के बारे में लिखा गया साहित्य है जबकि बाकी का साहित्य 15% लोगों द्वारा लिखा गया साहित्य है वो साहित्य मुख्य साहित्य कैसे हो सकता है ? अशोक बंजारा ने भी बताया कि दलित साहित्य आज समाज के बहुत बड़े तबके में पढ़ा जा रहा है जो समाज को जागरूक और बौद्धिक चेतना संपन्न बना रहा है।  
 
इसके बाद डॉ. ममता ने इशिदा से जापान में रहने वाले युवाओं के बारे में सवाल पूछा कि जापान के युवा आज जिस अवसाद और निराशा के दौर से गुजर रहे हैं? वे एकाकी जीवन की तरफ क्यों अग्रसर हो रहे हैं? इसका क्या कारण है सर ?

इसके जबाब में इशिदा जी ने बताया कि जापान के युवा तकनीक के मामले में बहुत ही आगे हैं पर वे व्यक्तिगत जीवन पर किसी अन्य चीज को हावी नहीं होने देते,जिससे कभी कभी वे निराशा और अवसाद की तरफ बढ़ जाते हैं। वे परिवार की जिम्मेदारी से बचने का प्रयास करते हैं इसलिए कभी कभी वे अवसाद की तरफ बढ़ जाते हैं।  
 
इस दौरान अलेस अध्यक्ष डॉ.बलराज सिहमार ने भी इशिदा जी से सवाल किया कि सर आप दलित साहित्य और गैरदलित साहित्य को किस नजरिए से देखते हैं। इनमें कौन सा साहित्य मानवता और मानवमूल्यों की बात करता है? एक तरफ गैरबराबरी,भेदभाव को बढ़ावा देने वाला साहित्य है और दूसरी तरफ मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण समता, समानता, बंधुत्व,न्याय की अवधारणा पर आधारित, अंबेडकवादी वैचारिकी से लैस दलित साहित्य है आप किसे तवज्जो देंगे।  

इस पर इशिदा जी ने मुस्कुरा कर कहा कि जो साहित्य गैरबराबरी के खिलाफ और समता, समानता, न्याय और बंधुत्व की भावना पर आधारित है वही साहित्य समाज का भला कर सकता है जिसका दृष्टिकोण वैज्ञानिकता और तार्किकता पर टिका हो और दलित साहित्य इन सब कसौटियों पर खरा उतरता है।  
 
डॉ. ममता की अभी हाल ही में आई पुस्तक ‘दलित साहित्य और सिनेमा: एक नयी दृष्टि’ का प्रोफेसर इशीदा और अलेस द्वारा विमोचन किया गया। प्रो. इशीदा जी ने डॉ. ममता के लिए शुभकामनाएं लिखी- “आपने यह पुस्तक प्रकाशित कर हिंदी साहित्य और दलित साहित्य में नया आयाम और नया इतिहास बनाने का सफल प्रयास किया है।” नये उभरते लेखकों के लिए अनुभवी साहित्यकारों की यह कामना वाकई हौंसला अफजाई के लिए काफी है। इसके लिए मैं इशीदा जी का हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ।   
 
कार्यक्रम के अंत में प्रोफेसर प्रमोद मेहरा ने आयोजन में उपस्थिति मुख्य अतिथि इशीदा जी और अन्य साथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया। चाय-नाशते के साथ इस बैठक की समाप्ति तथा प्रोफेसर इशीदा ने अलेस और सभी साथियों का धन्यवाद किया तथा बैठक से विदा ली।   


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