संविधान कतिपय किसी राज्य अथवा संस्था को प्रचालित करने के
लिये बनाया हुआ एक दस्तावेज होता है। यह प्रायः लिखित रूप में होता है। कई देश
मौखिक संविधान अथवा मान्यताओं के आधार पर शासन चलाते हैं। लेकिन वो एक अपवाद भर
है। वैसे भी यह एक अलग असंवैधानिक मान्यता है।
दरअसल संविधान वह विधि है जो किसी राष्ट्र के शासन का आधार
होती है। उसके चरित्र और संगठन को
निर्धारित करती है तथा उसके प्रयोग करने की विधि को बताती है। यह राष्ट्र की एक परम विधि है तथा
विशेष वैधानिक स्थिति का उपभोग करती है। सभी प्रचलित कानूनों को अनिवार्य रूप से
संविधान की भावना के अनुरूप होना चाहिए यदि वे इसका उल्लंघन करेंगे तो वे
असंवैधानिक घोषित कर दिए जाते हैं।
यहाँ यह कहना भी विषय से परे
नहीं होगा कि 'संविधान' शब्द का आशय कुछ भी माना जाए किंतु मूल बात यह है कि किसी भी
देश के संविधान का पूर्ण अध्ययन केवल कुछ लिखित नियमों के अवलोकन से ही संभव नहीं।
इसके अतिरिक्त संपूर्ण विधि-रचना विधानमंडल के क्षेत्र में ही सीमित नहीं होती
बल्कि न्यायपालिका
द्वारा मूलविधि की व्याख्या द्वारा जो नियम प्रस्फुटित होते हैं, उनसे भी संविधान
में नित्य संशोधनत्मक नवीनता आती रहती है। फलत: संविधान में समय समय पर नाना
प्रकार से संशोधन किए जाते रहे हैं। कई बार देखा गया है कि केन्द्रीय सरकारें अपने
राजनीतिक हितों को साधने के लिए जनता के हित किया गया संशोधन करार देती हैं। ...
यह संसद में बहुमत के चलते ही संभव होता है।
भारतीय संविधान में अब तक हुए महत्तवपूर्ण संशोधनों का थोड़ा-बहुत
विवरण देना मुझे यहाँ उचित ही लगता है। जिससे हमें संविधान मे हुए संशोधनों के
उचित और अनुचित होने के बारे में कुछ तो सोचने-समझने को मिलेगा ही। ज्ञात हो कि
भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था, तब से लेकर अब तक संविधान में अनेक
संशोधन हुए हैं। जिनमें से 42वाँ संविधान संशोधन (1976) प्रधानमंत्री इन्दिरा
गांधी के समय स्वर्ण सिंह आयोग की सिफारिश के आधार पर किया गया था। यह अभी तक का
सबसे बड़ा संविधान संशोधन रहा है। आम तौर पर इस संविधान संशोधन को लघु-संविधान की
संज्ञा दी जाती है। इस संशोधन में 59 प्रावधान थे। किंतु यहाँ कुछेक संशोधनों को
ही उल्लेख कर रहा हूँ। प्रथमत: इसके तहत संविधान की प्रस्तावना को ही बदल दिया गया
और प्रस्तावना में “पंथ निरपेक्ष,
समाजवादी और अखण्डता” शब्दों को जोड़ दिया
गया था। दूसरे – मौलिक अधिकारों को संविधान में लागू किया गया था। तीसरे –
राष्ट्रपति को मंत्रीपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया गया
था। जिसका प्रथम परिणाम इन्दिरा द्वारा आपात काल लगाने के रूप में सामने आया। सबसे
घातक और विनाशकारी संशोधन यह रहा कि संसद द्वारा किए गए संविधान संशोधन को न्यायालय में
चुनौती देने से वर्जित कर दिया गया। यानि कि संसद को
मनमानी करने की छूट प्रदान कर दी गई और तो और
लोकसभा और विधान सभा के कार्यकाल को 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया।
जिसे 44वे संविधान संशोधन में पुन: 6 वर्षे से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया। संपत्ति के
अधिकारों को मौलिक अधिकारों से हटाकर कानूनी अधिकार कर दिया गया। इस संशोधन के तहत
तो खास परिवर्तन किया गया, वह था कि राष्ट्रपति मंत्री मंडल की सलाह को एक बार
पुनर्विचार के लिए वापिस कर सकता है। लेकिन मंत्री मंडल द्वारा दूसरी बार प्रस्तुत
किए जाने पर राष्ट्रपति को मंत्री मंडल की सलाह को मानने को बाध्य होगा। .... अब आप भारत में राष्ट्रपति
के अधिकारों का सहज ही अन्दाजा लगा सकते हैं। यहाँ यह सवाल करना भी जायज है कि
वर्तमान दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द किन अधिकारों के तहत दलित समाज का भला कर
पाएंगे?
84वें संविधान संशोधन (2001) के द्वारा 1991 की जनगणना के आधार पर लोक सभा और विधान सभा क्षेत्रों के परिसीमन की
अनुमति प्रदान की गई।..... लेकिन दुखद ये रहा कि आज तक ओबीसी की जाति के आधार पर
जनगणना नहीं की गई है।
86वें संविधान संशोधन (2003) के द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार की श्रेणी
में लाया तो गया, किंतु शिक्षा के निजीकरण को इस हद तक बढ़ावा मिला कि
प्राय: राजनेता राजनीति करने के साथ-साथ निजी विद्यालयों की स्थापना में लिप्त हो
गए। आज की तारीख में सबसे ज्यादा निजी स्कूल राजनीति में लिप्त धनपतियों के हैं। ये
लोग सरकारी अनुदान का भरपूर प्रयोग कर रातों-रात समानांतर व्यवसाय में पारंगत हो गए।
वैसे आज की तारीख में राजनीति भी तो एक कारोबार है।
91वें संविधान संशोधन (2003) के द्वारा केन्द्र और राज्यो के मंत्री परिषदों के आकार
को सीमित करने तथा दल बदल को प्रतिबन्धित करने का प्रावधान है। किंतु क्या इसका
कार्यान्वयन आज तक सही से हो पाया है? आज की केन्द्रीय सरकार भाजपा ने कई बार गैर भाजपा
शासित राज्यों में खरीद-फरोख्त करके अपनी सरकार बनाने की कोशिश की है, वो बात अलग
है कि न्यायालय के हस्तक्षेप से कई बार भाजपा को निराशा भी मिली। एक बात और गौरतलब
है कि आज के दिनों में अधिकांश राज्यों के राज्यपाल भाजपा के पैरोकार हैं, सो वो
भाजपा के बहुमत में न होने पर भी भाजपा की सरकार बनवा देते हैं.... गोवा और मणिपुर
इसके ताजा उदाहरण हैं।
103वें संविधान संशोधन में जैन समुदाय को
अल्पसंख्यक का दर्जा: तो 108वें संविधान संशोधन के तहत महिलाओं के लिए लोकसभा व विधान सभा में 33% आरक्षण का प्रावधान
किया गया। किंतु हुआ क्या? आप सबके सामने है। 109वें संविधान संशोधन
के तहत पंचायती राज्य में
महिला आरक्षण 33% से 50%, 110वें संविधान संशोधन के तहत स्थानीय निकाय में महिला
आरक्षण 33% से 50% तक का प्रावधान किया गया। कुछ
राज्यों में यह प्रस्ताव लागू भी किया गया किंतु सत्तासीन तो पुरुष ही रहे, यानि
कि महिलाएं तय पदों पर चुनने के बाद भी पुरुषसत्ता से मुक्त नहीं हो पाईं और
आगंतुकों की आवभगत में ही लगी रहीं। उनकी मार्फत उनके मर्द ही फैंसले लेते रहे,
ऐसा प्रकाश में आया।
अभी हाल ही में नोटबन्दी के
बाद, 115वें संविधान संशोधन के तहत जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर)
लागू किया गया। नोटबन्दी और जीएसटी को लागू किए जाने का परिणाम आप सबके सामने है
कि जीडीपी 7.9 से गिरकर 5.7 पर पहुँच गई है। भारतीय अर्थव्यवस्था बुरे से चरमरा गई
है। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि केवल राजनेताओं के बल पर देश नहीं चलता। देश को
चलाने के लिए एक समझदार और पढ़ी-लिखी और अनुभवी लोगों की टीम चाहिए। आज की केन्द्र
की सरकार इसमें पिछड़ रही है। देश में सरकार तो है लेकिन केवल मोदी, अमित शाह और
जेटली की, बाकी तो सब इसी चिंता में दिन गुजार रहे हैं, यदि इन तीन लोगों की कथनी और करनी पर सवाल उठाया
तो कहीं कुर्सी ही खतरे में न पड़ जाए।
117वें संविधान संशोधन के तहत समाज के एस सी और एस टी को
सरकारी नौकरियों में पदोन्नत्ति में आरक्षण की वकालत की गई किंतु सरकारी नौकरियों
में पदोन्नत्ति की बात तो छोड़िए, उच्च शिक्षा में आरक्षण तक पर छुरी
चलती जा रही है। वैसे सरकारी नौकरिय़ां तो ना के बराबर रह गई हैं। भाजपा के शीर्ष
नेता सुब्रहमनियम स्वामी तो यहाँ तक कह चुके हैं कि सरकारी नौकरियों में एस सी और एस टी को मिलने वाले आरक्षण के नियमों
को इतना शिथिल कर दिया जाएगा कि आरक्षण को किसी भी नीति के तहत समाप्त करने की
जरूरत ही नहीं होगी, धीरे-धीरे स्वत: ही शिथिल हो जाएगा।
इन कुछ उदाहरणों से यह समझ आ जाना चाहिए कि इस प्रकार के संशोधन
सत्ताशीन राजनितिक दल केवल और केवल अपने हितों की रक्षार्थ करते हैं। यह संयोग ही
होगा कि इनके बल पर जनता का भी कुछ भला हो जाए। इस संदर्भ में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने संविधान में
बार-बार किए जा रहे संशोधनों को ‘साजिश’ करार दिया है। उन्होंने कहा कि हम सभी राजनीतिक दलों को यह
संकल्प लेना चाहिए कि भविष्य में संविधान में संशोधन नहीं होगा। साथ ही उन्होंने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आरक्षण के मुद्दे पर स्पष्टीकरण देने की मांग की और
कहा कि संविधान के प्रति प्रतिबद्धता पर बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री को
बताना चाहिए कि उनकी सरकार आरक्षण की समीक्षा नहीं करेगी। मुलायम सिंह यादव ने आगे
कहा कि संविधान में आज तक जितने संशोधन हुए है, उतने दुनिया के किसी भी संविधान
में नहीं हुए। उन्होंने कहा कि सरकारों को अपनी सुविधा और लाभ के लिए संविधान में संशोधन
करना ठीक नहीं है।
यहाँ
मुझे यहाँ कहने में कोई शंका अथवा मलाल नहीं है क़ि मोदी सरकार के पहले के जितने भी
संविधान संशोधन किए गए उनके पीछे किसी सत्तासीन दल का राजनीतिक हित देखा जा सकता
है किंतु वर्तमान सरकार राजनीतिक हितों के साथ-साथ भारत को एक हिन्दू राष्ट्र
घोषित करने की साजिश के तहत संविधान संशोधन की जुगत में लगी है। यह एक सामाजिक और
राजनीतिक साजिश है। मुलायम सिंह और लालू प्रसाद ने भी इसे संविधान को बदलने की
साजिश करार दिया था। सपा संविधान को बदलने की साजिश से सहमत नहीं है। उन्होंने
सवाल किया, ’ क्या हम लोग डॉ़ भीमराव अंबेडकर, जवाहर लाल नेहरु और डॉ राजेंद्र प्रसाद से ज्यादा काबिल है?’
आरक्षण पर स्पष्टीकरण की बात तो भाजपा कर सकती है किंतु संविधान पर पुनर्विचार आरएसएस का
एक 'हिडेन
एजेंडा' है। बीबीसी
संवाददाता फ़ैसल मोहम्मद अली ने रिपोर्ट किया है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ
प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के
नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए। संघ प्रमुख भागवत ने हैदराबाद में
एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित
हैं जबकि ज़रूरत है कि आज़ादी के 70 साल
के बाद इस पर ग़ौर किया जाए।
मेरी समझ के अनुसार भागवत का परोक्ष से रूप यह
आशय है कि मनुस्मृति को ही भारतीय संविधान का दर्जा दिया जाए। जो आज की तारीख में
तो होना संभव नहीं है। हैदराबाद में मोहन भागवत के भाषण पर अनेक ओर से
प्रतिक्रियात्मक टिप्पणियां आई हैं। कुछ लोग आरएसएस प्रमुख के बयान को संविधान पर हिंदुत्व की
सोच को थोपने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं। सीपीआईएम महासचिव सीताराम येचुरी
कहते हैं कि ''आरएसएस का ये एजेंडा उसके जन्म के
समय से है|'' येचुरी के मुताबिक़ भागवत के भाषण का 'हिडेन एजेंडा' यही
है, ''आरएसएस चाहता है कि हमारा भारत एक
धर्म निरपेक्ष गणराज्य न रहकर उनके उद्देश्य के मुताबिक़ एक हिंदू राष्ट्र के रूप
में बदल जाए|''
वहीं हिंदुत्ववादी विचारधारा वाली पत्रिका 'ऑर्गनाइज़र' और
पांचजन्य के समूह संपादक जगदीश उपासने मोहन भागवत को साधने के लिए कहते हैं कि 'आरएसएस
पूरी तरह से भारतीय संविधान में यक़ीन रखता है
और सर-संघचालक
के कथन का अर्थ यह है कि क़ानून और नैतिक मूल्यों में टकराव न हो और उसी अनुरूप
संविधान में बदलाव किया जाना चाहिए।'' उपासने का यह भी कहना रहा
कि भागवत के बयान को राजनीतिक दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। 'उन्होंने तो केवल भारतीयता की बात कही है। उनके
बयान से आप क्या समझें? क्या यह नहीं कि संविधान में बदलाव तो होना ही चाहिए, वो
भी आर एस एस की सोच के अनुसार। भागवत के बयान पर अनेक सवाल उठ रहे हैं कि आरएसएस भारतीयता को सिर्फ़ हिंदुत्व के
नज़रिए से देखता है। आलोचक कहते हैं कि आरएसएस के इस नज़रिए में भारत की विविधता
और जीवन शैली के लिए कोई जगह नहीं है।
वामपंथी नेता येचुरी कहते
हैं, ''भारत के सामने फ़िलहाल सवाल ये है
कि क्या वो उस भूतकाल में जिएगा, जहां संघ उसे ले जाना चाहता है या फिर बेहतर और
उज्जवल भविष्य की तरफ़ देखेगा। संघ भारत को पीछे धकेलने की कोशिश में है।''
कांग्रेस नेता शकील अहमद
कहते हैं, ''जब भागवत संविधान को भारतीय मूल्यों
पर आधारित नहीं मानने की बात करते हैं, तब
वो ख़ुद संविधान का अपमान करने लगते हैं.'' भागवत
का यह कहना कि भारतीय संविधान का स्रोत विदेशी विचारधारा है, इस पर सीताराम येचुरी सवाल पूछते हैं, ''जम्महूरियत यानी लोकतंत्र भी एक विदेशी विचार है तो क्या
भागवत उसे भी ख़त्म कर देंगे?''
उपर्युक्त के आलोक में कहा
जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने स्थापना वर्ष 1925
से ही भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने के मिशन में
लगा हुआ है। यूं आर एस एस काग़ज़ पर हिंदुत्व को धर्म नहीं जीवनशैली कहता है, लेकिन
व्यवहार में मुस्लिम तुष्टीकरण, धर्मांतरण, गौहत्या, राम
मंदिर, कॉमन सिविल कोड जैसे ठोस धार्मिक
मुद्दों पर सक्रिय रहता है जो सांप्रदायिक तनाव को जन्म देते हैं और अनगिनत
रिपोर्टों के मुताबिक़ अक्सर इस संगठन की दंगों में भागीदारी का आरोप लगा है। यही विरोधाभास आरएसएस की विशेष
पहचान बन गई है।
2014 को यदि छोड़ दिया जाए
तो आजादी के बीते सालों पर नज़र डालें तो नज़र आता है कि आरएसएस द्वारा उठाए गए
मुद्दे और असामाजिक गतिविधियां भले ही ख़ूनख़राबे, चुनावों के वक़्त धार्मिक
ध्रुवीकरण और संप्रदायों के बीच नफ़रत का कारण बनते रहे हों लेकिन वो कभी भी अपने लक्ष्य
की दिशा में निर्णायक मुक़ाम तक पहुँचने में नाकामयाब रही है। कहना न होगा कि अटल
बिहारी वाजपेयी शायद आरएसएस के प्रति इतने वफादार नहीं थे जितने कि मोदी जी। मोदी
जी तो जैसे सत्ता के लालच में आरएसएस की कठपुतली बन गए हैं। स्मरण रहे कि आरएसएस
का अपना एक अलग हिंदुत्व है जिसका तैंतीस करोड़ देवी- देवताओं वाले, अनेक जातियों में बंटे, अनेक भाषाओं,
अनेक रीति
रिवाजों, परंपराओं और अनेक धार्मिक मान्यताओं वाले उदार बहुसंख्यक समाज की जीवनशैली
से कोई मेल नहीं है। आरएसएस अपना अलग ही रंग समाज पर डालने की कोशिश में लगा रहता
है। आदिवासी और दलित भी उसके हिंदुत्व के खांचे में फ़िट नहीं हो पाते जो पलट कर
पूछते हैं कि अगर हम भी हिंदू हैं तो अछूत और हेय कैसे हुए? आरएसएस की एक और बड़ी मुश्किल यह है कि उसका इतिहास, उसके नेताओं की सोच और
व्यवहार लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले आधुनिक भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान, क़ानून, अनूठी सांस्कृतिक विविधता
और दिनों दिन बढ़ते पश्चिमी प्रभाव वाली जीवन शैली और समाज में बनते नए मूल्यों से
बार-बार टकराते है। इस टकराहट से कुछ सवाल पैदा होते हैं जिनका जवाब देने में
नाकाम होने के कारण आरएसएस के विचारक और प्रचारक बौखला जाते हैं।
व्यक्तिवाद के प्रबल विरोधी आरएसएस ने पहली
बार नरेंद्र मोदी को पिछले लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री ही नामित नहीं होने
दिया बल्कि उनकी हवा को प्रचंड बहुमत में बदलने में अपने स्वयंसेवकों के ज़रिए
महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। यही कारण है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद से इस
संगठन ने हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य के लिए अपनी पुरानी सोच के साथ गतिविधियां तेज़
कर दी हैं। यह बात अलग है कि आज भी आरएसएस के सामने ऐसे बहुत से सवाल हैं जिन्हें
लेकर संघ के लोग सहज दिखाई नहीं देते हैं। सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि आरएसएस नौकरियों
में जातिगत आरक्षण की समीक्षा तो करना चाहता है किंतु जातिवाद की नहीं। आरक्षण
पा रही जातियों को वोट के लिए तो हिंदू मानती हैं
किंतु सामाजिक सम्मान और समानता का हक देने के नाम उन्हें अछूत
कहकर अपमानित करती है। मकरसंक्रांति
पर दलित बस्तियों में समरसता भोज तो आयोजित करते हैं लेकिन छूआछूत और शोषण की
पैरोकार वर्णव्यवस्था के ख़िलाफ़ चुप क्यों रहते हैं?
खेद की बात तो ये है कि
आजकल वोटर इतना शांत कैसे हो गया है कि सरकार की कथनी और करनी पर सवाल करने से
बराबर कतराता है। जनता को यह जान लेना चाहिए कि जैसे-जैसे जनता सरकार की कथनी और
करनी पर सवाल करना बन्द करती जाएगी, वैसे-वैसे सरकार अराजक होती चली जाएगी जिसका खामियाजा
महज और महज जनता को ही उठाना पड़ेगा।
लेखक: तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर
से आदि ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन-झुन, खेल-खेल
में आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो
दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), दो निबन्ध संग्रह
और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक तथा
अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर
इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य
पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार
सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए
जा चुके हैं।