उत्तराखंड- स्प्रिंग का महत्त्व और छोटे जलस्रोतों की उपेक्षा को लेकर देहरादून स्थित चिराग, सिडार और अर्घ्यम संस्थाओं के संयुक्त तत्वाधान में एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसमें भविष्य में उत्पन्न होने वाले जल संकट और नदियों के घटते जलस्तर को लेकर विशेषज्ञ ने अपनी-अपनी राय प्रस्तुत की है। राय दी कि बिना जैवविविधता के पानी को बचाना आज के समय में कठिन है। साथ ही जल संरक्षण के लिये वैज्ञानिक और लोक ज्ञान की तरफ भी ध्यान देना होगा। ताकि प्राकृतिक संसाधनों पर हो रहे गलत दोहन पर रोक लग सके। इस दौरान कार्यशाला में लोगों ने आगामी कार्यक्रम भी तैयार किये हैं। जिसमें वे विभिन्न संस्थाओं और लोगों के साथ मिलकर स्प्रिंग्स पुनर्जीवन के कार्य करेंगे।
पुणे से आये एक्वाडैम संस्था के डॉ. हिमांशु कुलकर्णी ने बताया कि जलीय जल, आधार प्रवाह, भूजल की गुणवत्ता, जल संघर्ष, जलविद्युत और नदी बेसिन के महत्त्व एवं राष्ट्रीय ढाँचे तथा शासन में हो रहे परिवर्तनों पर विचार करने की आज की आवश्यकता है। कहा कि नदी के प्रवाह में स्प्रिंग्स का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जिस कारण नदियाँ सदानीरा रहती थीं। जैसे-जैसे स्प्रिंग्स का क्षरण हुआ वैसे-वैसे नदियों के प्रवाह में भारी मात्रा में कमी आने लग गई है। साथ ही मौसम में भी कई तरह के बदलाव खतरनाक रूप में सामने आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि नीति आयोग विशेषकर जल संरक्षण को लेकर यानि जिसमें स्प्रिंग्स को बचाने के कार्य होंगे ‘बसन्त पुनरुद्धार’ नाम से कार्यक्रम आरम्भ करने जा रहा है। इसके लिये बाकायदा नीति आयोग ने एक बजट भी स्वीकृत किया हुआ है। श्री कुलकर्णी ने बताया कि नीति आयोग इस कार्य के लिये देश के सात राज्यों में 6000 करोड़ का व्यय करेगा। इस बजट में सिर्फ स्प्रिंग्स को पुनर्जीवित करने के कार्य होंगे। उनका सुझाव था कि पहाड़ों में भूजल को देखने की भी जरूरत है। नदियों को फिर से जीवन्त करना है, इसलिये नदी प्रवाह के घटक स्प्रिंग्स को सुरक्षित करना आवश्यक है।
कार्यशाला में विशेषज्ञों ने कहा कि आजादी के बाद से अब तक भूजल का उपयोग लगभग 25 गुना बढ़ा है। इस कारण कह सकते हैं कि हम भूजल के सबसे बड़े उपयोगकर्ता हैं। जब हम जल संकट के बारे में बात करते हैं तो हमें स्प्रिंग्स का महत्त्व कहीं नजर ही नहीं आता है। कारण इसकी माँग और आपूर्ति, भूजल की कमी आदि के बीच का अन्तर सामने आ जाता है। जानकारों का प्रश्न था कि क्या पहाड़ों में भूजल है? यदि हाँ तो एक्वीफर्स और स्प्रिंग्स का बेवजह दोहन क्यों हो रहा है। इधर बड़ी मात्रा में देखने में आ रहा है कि हाइड्रोजियोलॉजी का मौजूदा विज्ञान लोगों को एक पूल के रूप में उपयोग किया जा रहा है। अच्छा हो कि जलस्तर चूँकि स्प्रिंग्स के घटते स्रोतों को पुनर्जीवित करने के उपादान पूर्व में हो चुके होते। लोगों ने सवाल उठाया कि देश में कितने ट्यूबवेल्स हैं जिसका आँकड़ा सरकार के पास है मगर सरकार ऐसा बिल्कुल नहीं बता सकती कि हमारे पास आज कितनी स्प्रिंग्स बचे हैं। लेकिन हम देश में अपने स्प्रिंग्स की संख्या बनाने की स्थिति में नहीं हैं।
नीति आयोग के जल संवर्धन के कार्यक्रम को देखते हुए हम राज्य में लगभग 1000 स्प्रिंग्स के भण्डारे के साथ आने में सक्षम हैं। जबकि सरकार की सूची एक अलग प्रकार की तस्वीर दिखा रही है। स्प्रिंगशेड एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे कई संस्थाओं ने विभिन्न गाँवों में लागू करने की कोशिश की है। जिसे अब जाकर नीति अयोग में ले जाने में सक्षम हुए। इस तरह स्प्रिंगहेड प्रबन्धन पर राष्ट्रीय कार्यक्रम के साथ जुड़ना आज की उपलब्धी कही जाएगी।
सुरेंद्र नेगी ने कहा कि उनका संस्थान 200 स्प्रिंग्स पर काम रहा है। बताया गया कि राज्य में दो प्रकार की स्प्रिंग्स हैं। एक नौला और दूसरा धारा के नाम से। ये दोनों स्प्रिंग्स मौजूदा समय में संकट से जूझ रही हैं। इनके सूख जाने के कारण पहाड़ों में पेयजल संकट के साथ-साथ भूजल में कमी आई है। प्रोफेसर एसपी सिंह ने बताया कि दुर्भाग्य इस बात का है कि विज्ञान और अनुसन्धान की अन्तर्दृष्टि एवं क्षमता को खरीदा जा रहा है। यही वजह है कि प्रकृति प्रदत्त जैसे जल संसाधन समाप्त हो रहे हैं। अच्छा हो कि इस प्रक्रिया में वन, जल विज्ञान और भूविज्ञान पर एक साथ शोध किया जाना चाहिए। ताकि एक दूसरे के पूरक कहे जाने वाले जल, जंगल, जमीन का स्पष्ट स्वरूप सामने आ सके।
कार्यशाला में आए नीति आयोग भारत सरकार के उपाध्यक्ष डॉ. अखिलेश गुप्ता ने सुझाव दिया कि पानी के सवाल को मुख्यधारा की शिक्षा से जोड़ने की जरूरत है। इस हेतु तकनीकी विज्ञान व सामाजिक आर्थिक मिश्रण की जटिलताओं पर शोध करने की आवश्यकता है। प्रौद्योगिकी का जो आक्रामक रूप है उसे सार्वजनिक नहीं किया जाता है इसलिये दोहन और संरक्षण में विरोधाभाष है। उन्होंने कहा कि हमें ऐसी योजना बनाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें पानी की जन्मदाता संस्था स्प्रिंग्स का विदोहन बिल्कुल ना हो। इसलिये ग्रीन बोनस की सार्थकता है। वैसे भी कैम्पा जैसी भारी भरकम फंड की योजना, मनरेगा आदि में यह निश्चित हो कि जल संसाधनों का दोहन से पहले संरक्षण करना होगा और इसी ओर फंड का इस्तेमाल भी करना होगा। इसके अलावा बड़े पैमाने पर पैराहाइड्रोजियोलॉजिस्ट की ट्रेनिंग होनी चाहिए। स्प्रिंग हेल्थ कार्ड बनना चाहिए। उन्होंने कहा कि नीति आयोग ने एक समन्वय एजेंसी की सिफारिश की है जो जल संसाधनों पर निगरानी और फंड के क्रियान्वयन पर निर्णय लेगी। राज्य इस विशिष्ट योजना के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान निभाएगा। इसके अलावा जो संस्थाएँ प्राकृतिक संसाधनों के प्रति संवेदनशील हैं वे इस काम में सहभागी हो सकती हैं।
चर्चा के दौरान लोगों ने कहा कि विकसित देशों में वर्षा के आँकड़े कम प्रतिरोध के तौर पर देखे जाते हैं। जबकि विकासशील देश, विशेष रूप से उत्तराखण्ड को एक उदाहरण के रूप में लेते हैं और यहाँ उच्च वर्षा भी होती है। फिर भी यहाँ भूजल और स्प्रिंग पर संकट गहराता जा रहा है। हिमालय और इसके अध्ययन में स्प्रिंग्स का महत्त्व कितना है, क्या यह केवल सतह का पानी या आउटलेट है, क्या हम इसे उप-सतह का पानी कहते हैं, जियोलॉजी को कैसे सम्बोधित किया जाना चाहिए और वानिकी कैसे मदद कर सकती है, क्या वाटरशेड प्रबन्धन में ओक मदद कर सकता है? ज्ञान-विज्ञान समुदाय आधरित बन सकता है, हिमालय में प्रस्तावित और क्रियान्वित सड़क नेटवर्क जलमार्गों को कैसे प्रभावित कर रहा है? क्या संगठनों द्वारा बनाए गए एटलस डेटा को सरकारी समर्थन के बावजूद मान्य किया जा सकता है? यह सब कुछ ध्यान में रखकर नीति आयोग आगामी राष्ट्रीय कार्यक्रम में जोड़ सकता है, जैसे सवाल चर्चा के दौरान खड़े किये गए। इस पर नीति आयोग के उपाध्यक्ष अखिलेश गुप्ता ने कहा कि वे मानचित्रण, एटलस और अन्य सामग्री का उपयोग करेंगे और यह स्क्रैच से सब कुछ शुरू करने के बजाय एक सहयोगी प्रयास करेंगे। पूरे हिमालय में 3000 सीएसओ हैं, यह नीति ग्रामीण मुद्दों को कृषि अनुसन्धान से जोड़ देगा यह बहुमुखी और एक एकीकृत दृष्टिकोण की योजना है। विशेषज्ञ विपुल शर्मा ने कहा कि नीति आयोग का बसंत पुनरुद्धार कार्यक्रम लोकाधारित पद्धति के साथ आ रहा है। इसलिये यह उपयोगी होगा।
डॉ. अबियन स्वान ने कहा कि अब तक विभिन्न वाटरशेड कार्यक्रमों के साथ काम का अलग-अलग अनुभव रहा है। पर कभी बसंत प्रबन्धन पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया। मेघालय में सबसे ज्यादा बारिश होती है, लेकिन इसका केवल 4-6 प्रतिशत ही उपयोग में आता है। बाकी रन-ऑफ हो जाता है। एक अध्ययन से पता चला है कि पानी हर विकास परियोजनाओं का मूल है। अतएव जल बेसिन कार्यक्रम ही बनने चाहिए। सुझाव आया कि समुदाय के साथ संवाद, मैपिंग स्वामित्व तथा हिमालयी लोगों के साथ उनके लोक ज्ञान को परिभाषित करना होगा। और वे आध्यात्मिकता से सम्बन्धित हैं। इसलिये आध्यात्मिक वन अवधारणा को आध्यात्मिकता और भगवान के भय के साथ पेश किया जाना चाहिए। ये पवित्र वन विभिन्न स्प्रिंग्स का आधार हैं। हिमालयी समुदाय के पास पूर्व से ही स्प्रिंग्स की मैपिंग है। क्योंकि वे जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन ही स्प्रिंगहेड प्रबन्धन में पूर्व से ही संरक्षण का काम सामूहिक रूप से करते आये थे। होना अब यह चाहिए कि ‘बसन्त प्रबन्धन कार्यक्रम’ में इन्हीं महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का अध्ययन करना होगा। चर्चा के दौरान बताया गया कि पूर्व में चुनौती इस बात की रही है कि पानी के परीक्षण तंत्र व उपकरण बहुत महंगे हैं। यहाँ सरल तकनीकों की आवश्यकता है। वृद्ध हो चुके सेप्टिक टैंक पर भरोसा कर रहे हैं, सीवेज प्रबन्धन प्रणाली नहीं है, हमारी नदियों के छोर कचरे का डम्पिंगयार्ड बन रहे हैं।
चर्चा में लोगों ने कहा कि क्या नदियों जैसे स्प्रिंग्स के न्यूनतम ई-प्रवाह की आवश्यकता है? औद्योगिक, या वाणिज्यिक और निजी जैसे विभिन्न सेटअप के पैरामीटर, प्रत्येक निगरानी पहलू में अलग-अलग पैरामीटर होंगे। इस पर आईआईटी रुड़की से आये विशेषज्ञ डॉ. सुमित सेन कहा कि नीति आयोग का यह ‘बसन्त पुनरुद्धार प्रबन्धन कार्यक्रम’ जो स्प्रिंग्स पुनरुद्धार के लिये है वह न केवल पहाड़ी समुदायों के लिये है यह डाउनस्ट्रीम समुदायों के लिये भी है, कहा कि उनके पास एक विशाल डेटा है, जिसे वे वैश्विक शोधकर्ताओं के साथ साझा कर रहे हैं। वे अपने डेटाबेस को डिजिटाइज कर रहे हैं, जिसके माध्यम से ज्ञान साझा करने में समुदाय को मदद मिल सकती है। यही नहीं आईआईटी रुड़की विभिन्न ऊर्जाओं के एकीकरण को चैनलाइज पर भी काम कर रही है। ताकि भविष्य में जल उत्पादकता पर ऐसे ज्ञान-विज्ञान को उपयोग में लाया जा सके। पीएसआई के निदेशक देवाशिष सेन ने कहा कि नदी के कायाकल्प, मिट्टी की नमी, जंगलों और वनस्पति में मदद करने वाले विभिन्न स्प्रिंग्स की पारिस्थितिक तंत्र को विकसित करने की आवश्यकता है।
कार्यशाला में लोगों ने विभिन्न स्तर पर सुझाव दिये हैं। उनके सुझाव वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने सहज ही स्वीकार किये है। विशेषज्ञों ने कहा कि लोक आधारित ज्ञान ही स्प्रिंग्स पुनरुद्धार कार्यक्रम में कारगर साबित हो सकते हैं। इस दौरान चर्चा में सामने आया कि स्प्रिंग्स सूखते क्यों हैं, क्या यह केवल जलवायु परिवर्तन है, क्या कोई मानववंशीय दबाव काम कर रहा है? भूगर्भीय प्रणाली में मृदा और जल संरक्षण की आवश्यकता है कि नहीं, विभिन्न वन प्रजातियों की भूमिका, पाइन और ओक वन का प्रभाव और उनकी भूमिकाओं के क्या पैरामीटर व मानकीकरण होंगे।
सामाजिक-आर्थिक प्रभाव को देखना होगा कि ऐसा हस्तक्षेप सामाजिक रूप से स्वीकार्य और टिकाऊ है या नहीं। स्प्रिंग्स के घटते स्तर को फिर से जीवन्त करने के लिये स्प्रिंग्स और उसके स्थान और इसकी सेवाओं पर ध्यान देना होगा। अर्थात वन विभाग की जिम्मेदारी भी निहित होनी चाहिए। इसके लिये पीसीसीएफ के तहत कर्मचारियों और रेंजरों के संगठनात्मक स्तर के प्रशिक्षण और शैक्षणिक जागरुकता के कार्यक्रम अनिवार्य होने चाहिए। कार्य योजना में वाटरशेड प्रबन्धन और संरक्षण से सम्बन्धित दो स्तर पर काम करने की आवश्यकता है। पहला निर्वहन आधारित और दूसरा समुदाय आधारित। कैम्पा जैसी परियोजना के धन को स्प्रिंग्स पुनरुद्धार कार्यक्रम में 80 प्रतिशत उपयोग करने की जरूरत है।