छत्रपति शिवाजी के वंशज छत्रपति शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर स्टेट में 26 जुलाई 1902 को शूद्रों को 50 फीसदी सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे दिया। बाबा साहब आंबेडकर ने अपने दोनों पूर्वजों का कर्ज उतारने के लिए भारतीय संविधान में पिछड़े वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था कर दी। जिसके तहत अन्य पिछड़े वर्गों को 52 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था मंडल कमीशन ने 1990 में की। बहुजन नायक कांशीराम जी ने कहा था कि 85 फीसदी आरक्षित वर्ग को बहुजन समाज के नाम से अपने वर्ग की नई पहचान बना कर, गुलामी से मुक्ति की नहीं बल्कि शासक बनने की तैयारी करनी चाहिए। उसके लिए उन्होंने स्वयं राजनीतिक पार्टी बना कर लड़ाई शुरू की थी।
कल तक दलित, पिछड़े, आदिवासी, धार्मिक अल्पसंख्यक, जाट, कापू, मराठे और पटेल अलग अलग होने के कारण राजनीतिक रूप से दूसरों पर निर्भर थे, वे आज अपनी अपनी हिस्सेदारी जनसँख्या के अनुपात में मांग रहे हैं। परन्तु अपनी सत्ता बना कर बहुजन समाज सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।
आज समय आ गया है बहुजन समाज को अपनी अलग राजनीतिक पहचान बनानी चाहिए। आरक्षण मांगने की जगह अपनी सत्ता स्थापित करके अपने बच्चों के लिए समुचित रोजगार का प्रबंध करना चाहिए। स्कूली श्क़्श का राष्ट्रीयकरण करने की आवाज भी बुलंद करनी चाहिए। ब्राह्मणी व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए बाबा साहब के द्वारा पुनर्जीवित धम्म को अपनाकर अपना दीपक स्वयं बनना चाहिए। आज छत्रपति शाहू होते तो सम्राट अशोक की तरह धम्म के मार्ग पर चल कर सबको न्याय देते। सम्राट अशोक और बाबा साहब के नवयान धम्म मार्ग को समझने के लिए निम्नलिखित विवरण प्रस्तुत है।
‘नवयान’ बौद्ध धम्म का नया विकास मार्ग
'नवयान' भारत के बौद्ध धम्म का नया वाहन अर्थात परिष्कृत मार्ग है । बुद्धत्व का मतलब बोधि से है, जो सिद्धार्थ गौतम को प्राप्त हुआ था। भारत में बुद्धिस्ट बनने के लिए पुरातन अष्टांगिक मार्ग का पालन करना अनिवार्य होता है । नवयानी बौद्ध अनुयायिओं को नवबौद्ध (नवीन बौद्ध) भी कहा जाता है, क्योंकि वे छह दशक पूर्व डा अम्बेडकर द्वारा बौद्ध दीक्षा लेने के बाद ही बने हैं। यह समुदाय 'महायान', 'थेरवाद' और 'वज्रयान' से पूर्णत भिन्न है। 'नवयान' में इन तीनों सम्प्रदायों में से बुद्ध के केवल विज्ञानवादी एवं तर्कसंगत सिद्धांतों को ही अपनाया गया है। 'नवयान' में किसी भी प्रकार के अंधविश्वास या कुरीतियों को कोई स्थान नहीं दिया गया है।
डॉ भीमराव अम्बेडकर द्वारा बौद्ध धम्म अंगीकार करने से पहले एक दिन पूर्व 13 अक्टूबर 1956 को एक पत्रकार ने पूछा था कि 'आप जिस धम्म की दीक्षा लेने वाले है वह महायान होगा या हीनयान'? उत्तर में भीमराव ने कहां कि ‘मेरा धम्म न तो महायान होगा और न ही हीनयान। इन दोनों संप्रदायों में कुछ अंधविश्वासी बातें हैं। इसलिए मेरे धम्म का नाम ‘नवयान बौद्ध धम्म’ होगा। मेरे द्वारा अपनाये जाने वाले धम्म में बुद्ध के मूल सिद्धांतों के साथ विवेकवादी सिद्धांत ही होंगे जिनमें कुरीतियों और अंधविश्वासों का कोई स्थान नहीं होगा। यह एक ‘विशुद्ध बौद्ध धम्म’ होगा’।
पत्रकार ने फिर पूछां, क्या हम इसे 'नवयान' कह सकते हैं? डा. अम्बेडकर ने कहा "हाँ, मैं गौतम बुद्ध तथा बोधिसत्व अशोक महान को अपना गुरु मानता हूँ इस लिए नवयानी बौद्ध अशोक महान को भी गौतम बुद्ध के समान ही सम्मान देंगे। वर्तमान समय में बुद्ध और अशोक की श्रंखला में भीम भी जुड़ गए हैं इसलिए अब तीनों ही बोधिसत्व नवयानी बौद्धों के श्रेष्ठतम् गुरु हैं”।
वर्तमान भारत में जब-जब भगवान बुद्ध को स्मरण किया जाता है, तब-तब स्वाभाविक रूप से चक्रवर्ती सम्राट अशोक का भी नाम लिया जाता है। स्वतंत्रता के बाद बहुत बड़ी संख्या में एक साथ डा. अम्बेडकर के नेतृत्व में बौद्ध धम्म परिवर्तन हुआ था। 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में यह दीक्षा सम्पन्न हुई जिसमें भीमराव डा.अम्बेडकर के ५ लाख समर्थक बौद्ध बने, अगले दिन 2 लाख और फिर तीसरे दिन 16 अक्टूबर १९५६ को चंद्रपूर में 3 लाख लोग बौद्ध बने । इस तरह तीन दिनों में कुल 10 लाख से भी अधिक लोग भीमराव ने बौद्ध बनाये थे। भारत में 20 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धम्म का पुनरूत्थान या पुनर्जन्म हुआ। एक अनुमान के अनुसार मार्च 1959 तक करीब 1.5 से 2 करोड़ लोग बौद्ध बन चुके थे। आज बौद्ध धर्म भारत के प्रमुख धर्मों में से एक है। "भगवान बुद्ध और उनका धम्म" भारतीय बौद्ध अनुयायिओं का आदर्श ग्रंथ हैं, जिसे डॉ॰ भीमराव आंबेडकर ने लिखा था।
बौद्धों का विकास
दलितों को लगने लगा है कि हिंदू धर्म से बाहर निकलना उनके लिए बेहतर रास्ता हो सकता है क्योंकि बीते सालों में नवबौद्धों की हालत सुधरी है जबकि हिंदू दलितों की जिंदगी वोट बैंक के रूप संगठित होने के बावजूद ज्यादा नहीं बदली है।
बौद्धों के जीवन स्तर में सुधार
सन 2001 की जनगणना के मुताबिक देश में बौद्धों की जनसंख्या अस्सी लाख थी। जिनमें से अधिकांश बौद्ध (नवबौद्ध) यानि हिंदू दलितों से धर्म बदल कर बने हैं। सबसे अधिक 59 लाख बौद्ध महाराष्ट्र में बने हैं। उत्तर प्रदेश में सिर्फ 3 लाख के आसपास नवबौद्ध हैं , फिर भी कई इलाकों में उन्होंने हिंदू कर्मकांडों को छोड़ दिया है। पूरे देश में 1991 से 2001 के बीच बौद्धों की आबादी में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
1. लिंग अनुपात
हिन्दू दलितों के 936 की तुलना में बौद्धों के बीच महिला और पुरुष का लिंग अनुपात 953 प्रति हजार है। यह सिद्ध करता है कि बौद्ध परिवारों में महिलाओं की स्थिति में अब तक हिन्दू दलितों की तुलना में बेहतर है। यह काफी बौद्ध समाज में महिलाओं की उच्च स्थिति के अनुसार है। बौद्धों का यह अनुपात हिन्दुओं (931), मुसलमानों (936), सिख (893) और जैन (940) की तुलना में अधिक है।
2. बच्चों का लिंग अनुपात (0-6 वर्ष)
2001 की जनगणना में लिंग अनुपात के अनुसार बौद्धों में 1000 लड़कों पर 942 लड़कियां थीं जो हिन्दू दलितों के 938 के मुकाबले 4 अधिक हैं। यह लिंग अनुपात हिन्दुओं में (1000:925), जैन (1000:870), सिख (1000:786) की तुलना में बहुत अधिक है। यह हिंदू दलित परिवारों के साथ तुलना में है कि लड़कियों को बौद्धों के बीच बेहतर देखभाल और संरक्षण का परिणाम हैं।
3. साक्षरता दर
बौद्ध अनुयायिओं की साक्षरता दर 72.7 प्रतिशत है जो हिन्दू दलितों की 54.70 प्रतिशत साक्षरता दर की तुलना में बहुत अधिक है। बौद्ध धर्म के लोग हिन्दू दलितों से तो अधिक साक्षर हैं ही यहाँ तक की वे हिंदुओं में 65.1%, मुसलमानों में 59.1% और सिखों में 69.4% के मुकाबले भी काफी अधिक साक्षर है।
बौद्ध महिलाओं की साक्षरता दर 61.7 प्रतिशत है जो हिंदुओं की 53.2% और मुसलमानों की 50.1% साक्षरता दर की तुलना में बहुत अधिक है। इससे पता चलता है कि बौद्धों की महिलाए हिंदू और मुसलमानों की महिलाओं की तुलना में अधिक शिक्षित हो रही है। यह आंकड़ा बौद्ध समाज में महिलाओं की अच्छी स्थिति का परिचायक है।
4. काम में भागीदारी दर
कामकाजी बौद्धों की 40.6 प्रतिशत दर दूसरे सभी समुदायों के मुकाबले सबसे ऊपर है। हिन्दू दलितों में यह दर 40.4 प्रतिशत, अन्य हिंदुओं में 40.4 प्रतिशत, मुसलमानों में 31.3 प्रतिशत ईसाईयों में 39.3 प्रतिशत, सिख समुदाय में 31.7 प्रतिशत और जैन समुदाय में 32.7 प्रतिशत लोग कार्यरत हैं। यह आकड़ा साबित करता है कि बौद्ध धर्म के अन्य समुदायों की तुलना में अधिक कार्यरत हैं। इससे पता चलता हैं की, शोषितों एवं दलितों के नेता डॉ॰ भीमराव आंबेडकर जी ने दलितों के उत्थान या प्रगती के लिए जो महान बुद्धवाद स्वयं स्वीकार किया था । वही धम्म अपने लोगों को स्वीकार करने की सलाह दी थी।
उपरोक्त धम्म का मार्ग दलितों के लिए पीड़ा हरण औसधि साबित हुआ है। हांलाकि, दलितों के एक बहुत छोटे हिस्से ने ही धम्म का मार्ग अपनाया है। वर्तमान समय में बौद्ध धम्म के रस्ते पर चने वाला समुदाय हिंदू दलितों से तो बहुत बेहतर है परन्तु अन्य सबसे भी बेहतर साबित हो रहा है।
बौद्ध धम्म के पतन के कारण
बौद्ध धम्म का जन्म ईसा पूर्व छटवीं शताब्दी में हुआ। सम्राट अशोक के शासन काल में धम्म राजधर्म के रूप में स्थापित हो गया। वह समस्त भारत में ही नहीं- चीन, जापान, स्याम, लंका, अफगानिस्तान सिंगापुर और एशिया के पश्चिमी देशों तक फैल गया। अशोक जैसे इतिहास प्रसिद्ध सम्राट् ने कलिंग युद्ध के पश्चात बौद्ध धर्म ग्रहण क्र लिया। कुछ विद्वानो का यह भी कहना है बौद्ध धम्म के भिक्षुओं का नैतिक आचरण गिर जाने के कारण ही बौद्ध धर्म का पतन हुआ। किन्तु यह सत्य नहीं है। प्रत्येक धर्म कि शुरुआत अच्छे उद्देश्यों से होती है किन्तु बाद में इसमें तरह तरह की भ्रांतिया आ जाती है। इसी तरह बौद्ध धम्म के साथ भी हुआ था। किन्तु केवल यह कारण ही पर्याप्त नहीं है। बौद्धकाल ने ना केवल वृहद विकास का दौर देखा है अपितु सशक्त प्रथम केन्द्रिय सत्ता भी देखी है। ईस काल में भारतवर्ष् अध्यात्म एवम ज्ञान का केन्द्र बन गया था। बौद्ध धम्म के तीव्र विस्तार से उस समय धार्मिक एवम राजनैतिक विकास के अतिरिक्त आर्थिक विकास भी खूब हुआ। भारत में बौद्ध धम्म के पतन के अनेक कारण गिनाये जाते हैं।
1. आन्तरिक कारण
कुछ विद्वानों के कथनानुसार भारतवर्ष से बौद्ध धर्म के लोप हो जाने का कारण 'ब्रह्मणों का विरोध' ही था। बौद्ध धर्म के पुर्व ब्राम्हण वैदिक धर्म का पालन करते थे। अत्ः बौद्ध धम्म का उदय एक प्रकार से ब्राम्हण धर्म के विरुध्द एक् क्रान्ति थी। मौर्यवंश के सम्राट अशोक ने बौध्द धर्म को अपना राजधर्म बना लिया था। अतः इसके धम्म के नियमानुसार वैदिक बलिप्रथा पर रोक लगा दी थी। जिससे बौद्ध धर्म का काफी विस्तार हुआ। प्रतिक्रान्तिस्वरुप अशोक के वंशज ब्रहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने करके अपना राज स्थापित किया बाद में उसने बलिप्रथा फिर से प्रारम्भ करवा दी। देवानाप्रिय अशोक ने पूरे जम्बू द्वीप में लगभग 84000 स्तूप बनवाये थे जिसमें साँची, सारनाथ इत्यादि के स्तूप प्रमुख थे। पुश्यमित्र शुंग को बुद्धिस्टो से शत्रुता रखने वाला माना जाता है। जिसने बुध्दिस्टो के शास्त्र जलाए तथा भिक्षुओं का नरसन्हार किया।
अपनी गलती का कुपरिणाम भोगकर ब्राह्मण जब पुनः सँभले तो वे बौद्ध धर्म की बातों को ही अपने शास्त्रों में ढूँढ़कर बतलाने लगे और अपने अनुयायियों को बुद्ध का ही उपदेश देने लगे।" बौद्ध- धर्म का मुकाबला करने के लिए हिंदू धर्म के विद्वानों ने प्राचीन कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान- मार्ग और भक्ति- मार्ग का प्रचार करना आरंभ किया। कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने मीमांसा और वेदांत जैसे दर्शनों का प्रतिपादन किया। उन्होंने बौद्ध धर्म के तत्त्वज्ञान को दबाया और रामानुज, विष्णु स्वामी आदि वैष्णव सिद्धांत वालों ने भक्ति- मार्ग द्वारा बौद्धों के व्यवहारिक-धर्म से बढ़कर प्रभावशाली और छोटे से छोटे व्यक्ति को अपने भीतर स्थान देने वाले उपदेशों को प्रचारित किया। अनेक हिंदू राजा भी इन धर्म-प्रचारकों की सहायतार्थ खडे़ हो गए। इस सबका परिणाम यह हुआ कि जिस प्रकार बौद्ध धर्म अकस्मात् प्रचारित होकर व्यापक बन गया, उसी प्रकार निर्बल पड़ने पर उसकी जड़ उखड़ते भी देर न लगी।
2. बाह्य कारण
भारत के उत्तरी पूर्व भाग से आने वाले श्वेत हुन तथा मंगोलो के आक्रमनो से भी बौद्ध धर्म को बहुत हानि हुई। मुहम्मद बिन कासिम द्वारा सिन्ध पर आक्रमण करने से भारतीयों का पहली बार् इस्लाम से परिचय हुआ। चुकि सिन्ध का शासक दाहिर एक बुद्धिष्ट प्रजा पर शासन करनेवाला अलोकप्रिय शासक था। अत्ः राजा दाहिर को मुहम्मद बिन कासिम ने हरा दिया। मेहमूद गजनवी ने 10वी शताब्दी ईसवी में बुद्धिष्ठ एवम ब्राम्हण दोनों धर्मो के धार्मिक स्थलों को तोड़ा एवम सम्पूर्ण पंजाब क्षेञ पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार से बहुत से बौद्ध अनुयायी नेपाल एवम तिब्बत की ओर भाग गये। अंग्रेज अफसर ह्चीसन के अनुसार तुर्किश जनरल मुहम्मद बख्तियार खिल्जी के द्वारा भी बडी मात्रा में बुद्धिस्ट भिखुओं का कत्लेआम किया गया था। मंगोलों में चंगेज खान ने सन 1215 में अफगानिस्तान एवम समस्त मुस्लिम देशों में तबाही मचा दी थी। उसकी मौत के बाद उसका साम्राज्य दो भागो में बट गया। भारतीय सीमा पर चगताई ने चगताई साम्राज्य खडा किया तथा ईरान प्लातु पर हलाकु खान ने अपना साम्राज्य बनाया। जिसमे हलाकु के पुत्र अरघुन ने बौद्ध धर्म अपना कर इसे अपना राजधर्म बनाया था। उसने मुस्लिमों की मस्जिदो को तोड्कर स्तूप निर्माण कराये थे। बाद में उस्के पुत्र ने फिर से इस्लाम को अपना राजधर्म बना लिया। तैमुरलङ ने १४वी सदी में लगभग सारे पश्चिम एवम मध्य एशिया को जीत लिया था, तेमुर ने बहुत से बुद्धिस्ट स्मारक तोड़े एवम बुद्धिस्टो को मारा।
आज बौद्ध धर्म अनेक दूरवर्ती देशों में फैला हुआ है और जिसके अनुयायियों की संख्या विश्व में तीसरे स्थान पर है। किन्तु भारत में अधिकांश अन्य धर्म वालों से बहुत कम हो गयी है। इसका भारत से इस प्रकार लोप हो जाना बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है। लोग बौद्ध धर्म को पूर्ण रूप से एक विदेशी- धर्म ही मानने लगे थे। परन्तु 14 अक्तुबर 1956 को डा.भीमराव अम्बेड्कर ने हिन्दु धर्म में व्याप्त छूआछुत से तंग आकर अपने लगभग 10 लाख अनुयायियों के साथ दीक्षा लेकर बौद्ध धम्म को पुनः उसकी जन्मभूमि जन्मभुमि पर पुनर्जीवित कर दिया है। आज महारास्ट्र, उत्तर प्रदेश एवम देशभर के दलित बौद्ध धर्म को माननेवाले बन गये हैं।
इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि संसार के सभी प्रमुख धर्म लोगों को निम्न स्तर के जैविक मुल्यो से निकालकर उच्च मूल्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से स्थापित किए गए हैं। पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि मजहब आज चाहे जिस दशा में हों पर आरंभ में सबने अपने अनुयायियों को जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों पर चलाकर उनका कल्याण साधन ही किया था। पर काल- क्रम से सभी में कुछ व्यक्तियों या समुदाय विशेष की स्वार्थपरता के कारण विकार उत्पन्न हुए और तब उनका पतन होने लगा। तब फिर किन्हीं व्यक्तियों के हृदय में अपने धर्म की दुरावस्था का ख्याल आया और वे लोगों को गलत तथा हानिकारक मार्ग से हटाकर धर्म- संस्कार का प्रयत्न करने लगे। बुद्ध भी इस बात को समझते थे और इसलिए यह व्यवस्था कर गये थे कि प्रत्येक सौ वर्ष पश्चात् संसार भर के बौद्ध प्रतिनिधियों की एक बडी़ सभा की जाए और उसमें अपने धर्म तथा धर्मानुयायियों की दशा पर पूर्ण विचार करके जो दोष जान पडे़ उनको दूर किया जाए। तदोपरांत नवीन समयोपयोगी नियमों को प्रचलित किया जाए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अगर आवश्यक समझा जाए तो पुरानी प्रथाओं और नियमों से कुछ छोटी-मोटी बातों को छोडा़ और बदला जा सकता है।
चरित्र-निर्माण पर जोर
बौद्ध धर्माचार्यों द्वारा इसी बुद्धिसंगत व्यवस्था पर चलने और रूढि़वादिता से बचे रहने का यह परिणाम हुआ कि बौद्ध धर्म कई सौ वर्ष तक निरंतर बढ़ता रहा और संसार के दूरवर्ती देशों के निवासी आग्रहपूर्वक इस देश में आकर उसकी शिक्षा प्राप्त करके अपने यहाँ उसका प्रचार करते रहे। जीवित और लोक- कल्याण की भावना से अनुप्राणित धर्म का यही लक्षण है कि वह निरर्थक या देश- काल के प्रतिकूल रीति- रिवाजों के पालन का प्राचीनता या परंपरा के नाम पर वह आग्रह नहीं करता। वरन् सदा आत्म- निरीक्षण करता रहता है। किसी कारणवश अपने धर्म में, अपने समाज में और अपनी जाति में यदि कोई बुराई, हानिकारक प्रथा, नियम उत्पन्न हो गए हों तो उनको छोड़ने तथा उनका सुधार करने में आगा- पीछा नहीं करता। इसलिए बुद्ध की सबसे बडी़ शिक्षा यही है कि-मनुष्यों को अपना धार्मिक, सामाजिक आचरण सदैव कल्याणकारी और समयानुकूल नियमों पर आधारित रखना चाहिए। जो समाज, मजहब इस प्रकार अपने दोषों, विकारों को सदैव दूर करते रहते हैं, उनको ही 'जीवित' समझना चाहिए और वे ही संसार में सफलता और उच्च पद प्राप्त करते हैं।
वर्तमान समय में हिंदू धर्म में जो सबसे बडी़ त्रुटि उत्पन्न हो गई है। वह यही है कि इसने आत्म- निरीक्षण की प्रवृत्ति को सर्वथा त्याग दिया है और 'लकीर के फकीर' बने रहने को ही धर्म का एक प्रमुख लक्षण मान लिया है। अधिकांश लोगों का दृष्टिकोण तो ऐसा सीमित हो गया है कि वे किसी अत्यंत साधारण प्रथा- परंपरा को भी, जो इन्हीं सौ-दो सौ वर्षों में किसी कारणवश प्रचलित हो गई है। पर आजकल स्पष्टतः समय के विपरीत और हानिकारक सिद्ध हो रही है। ऐसी प्रथाओं को छोड़ना 'धर्म विरुद्ध समझते' हैं। इस समय बाल-विवाह, मृत्युभोज, वैवाहिक अपव्यय, छुआछूत, चार वर्णों के स्थान पर आठ हजार जातियाँ आदि अनेक हानिकारक प्रवृत्तियाँ हिन्दू समाज में घुस गई हैं। पर जैसे ही उनके सुधार की बात उठाई जाती है, लोग 'धर्म के डूबने की पुकार, मचाने लग जाते हैं।
महात्मा बुद्ध के उपदेशों पर ध्यान देकर हम इतना समझ सकते है कि- वास्तविक धर्म आत्मोत्थान और चरित्र- निर्माण में है, न कि सामाजिक लौकिक प्रथाओं में। यदि हम इस तथ्य को समझ लें और परंपरा तथा रूणियों के नाम पर जो कूडा़-कबाड़ हमारे समाज में भर गया है उसे साफ कर डालें तो हमारी सब निर्बलताएँ दूर हो सकती हैं। इस तरह हम फिर प्राचीन काल की तरह उन्नति की दौड़ में अन्य जातियों से अग्रगामी बन सकते हैं।
B R Gautam
2018-07-28It s a good median to awaken bahujan samaj.