अवधारणा
भारत की सामाज व्यवस्था अन्य देशों की अपेक्षा अधिक जटिल है। जाति और वर्ण पर आधारित अर्थव्यवस्था कालांतर में पुरोहितों की सोची-समझी रणनीति के परिणामस्वरूप ही ऊंच-नीच पर आधारित वर्तमान विषमतायुक्त समाज के रूप में निर्मित हुई है। लगभग 25 फीसदी लोग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक प्रताड़ना का,दंश आज तक झेल रहे हैं, जिनकी पहचान अनुसूचित जातियों और जनजातियों के रूप में होती है। लगभग 52 फीसदी लोग सामाजिक और शैक्षिक प्रताड़ना का दंश आज तक झेल रहे हैं, जिनकी पहचान अन्य पिछड़ी जातियों के रूप में होती है। लगभग 13 फीसदी लोग सांस्कृतिक और सामाजिक प्रताड़ना का,दंश अन्य गैर ब्राह्मण जनित धर्मों को मानने के कारण झेल रहे हैं जिनकी पहचान धार्मिक अल्पसंख्यकों के रूप में होती है। इन सभी को मिलाने पर 90 फीसदी आबादी होती है जिसे आधुनिक भारत में कांशीराम जी ने बहुजन समाज के नाम से पुकारा। हालाँकि सबसे पहले महाकारुणिक बुद्ध ने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की बात की थी। 90 फीसदी बहुजन समाज के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हित बहुजन आंदोलन से ही सुरक्षित रह सकते हैं। इसलिए भारत में बहुजन समाज के समग्र विकास हेतु राजनीतिक सोच के साथ-साथ बहुजन अर्थशास्त्र की भी सोच विकिसित करनी होगी।
सिवाय मजदूरी को छोड़ कर जल, जंगल, ज़मीन, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग, धर्म, शिक्षा, न्याय, ठेके, कम्पनी प्रबंधन, बैंकिंग, मीडिया, सुरक्षा, प्रशासन एवं राजनीति पर 90 प्रतिशत कब्ज़ा 15 प्रतिशत सवर्ण वर्ग (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) का है।
कांशीराम जी की संकल्पना
भारत में शुद्रातिशूद्र जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी की मांग अंग्रेज सरकार से 1882 में महात्मा ज्योतिबा फुले ने की थी। 26 जुलाई 1902 को महात्मा फुले के शिष्य क्षत्रपति शाहूजी, महाराजा कोल्हापुर शुद्रातिशूद्र जातियों को 50 प्रतिशत हिस्सेदारी अपने राज्य के शासन-प्रशासन में देकर सामाजिक न्याय के सूत्रधार बन गए। डॉ. बाबा साहब आंबेडकर, महात्मा फुले को अपना वैचारिक गुरु मानते थे। उन्होंने भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 जोड़ कर अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के अलावा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के द्वार खोल दिए। इसी अनुच्छेद के तहत 1951 में अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण हेतु काकासाहेब कालेलकर की अध्यक्षता में स्वतंत्र भारत में पहला आयोग गठित किया गया। मान्यवर कांशीराम जी ने 1973 से बाबा साहब के कारवां को आगे बढ़ाने का काम शुरू कर दिया। उनका लक्ष्य था समस्त शूद्र, अतिशूद्र और सम्मान हेतु अन्य धर्मों में परिवर्तित अल्पसंख्यक समुदाय को एक नाम देकर राजनीतिक सत्ता प्राप्त करके कमजोर वर्ग को मजबूत बनाना। 1980 से मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कराने हेतु बामसेफ के बैनर से पिछड़े वर्गों में पैठ बना ली। 1984 में शूद्र, अतिशूद्र, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय को 'बहुजन समाज' के नाम से अलग नाम देकर सत्ता पर कुंडली मार कर बैठे हुए सवर्ण हिन्दुओं के नेतृत्व वाली पार्टियों के खिलाफ़ ताल ठोंक दी।
ब्रिटेन स्थित एजेंसी ने खुलासा किया कि भारत के केवल 1 फीसदी सर्वाधिक धनिक वर्ग के पास देश की कुल संपत्ति का 53 फीसदी हिस्से पर कब्ज़ा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि असमानता को कम करने के लिए, भारत को एक 'अलग आर्थिक मॉडल' की आवश्यकता है- जो कम कार्बन उत्सर्जन करने वाले उद्योगों के आलावा गरीबी, असमानता मिटाने में सहायक कामधन्धों की पहिचान करके उनकी वित्तीय कमी को दूर करने के लिए उद्धमियों की पहुंच के दायरे में ला सके। यूएनजीसी के सीईओ और कार्यकारी निदेशक, लीसे किंगो के अनुसार, एसडीजी भारत में निजी क्षेत्र के लिए कम से कम 1 खरब डॉलर के बाजार के अवसर खोल सकते हैं। "यह 12 खरब डॉलर के कुल वैश्विक मूल्य से बाहर है, जिसे चार प्रमुख क्षेत्रों, खाद्य और कृषि, ऊर्जा, शहर और स्वास्थ्य में टिकाऊ व्यवसाय मॉडल से अनलॉक किया जा सकता है," किंगो ने कहा कि 2030 तक भारत में एक टिकाऊ व्यवसाय मॉडल के अनुकूल 72 मिलियन से अधिक नई नौकरियां पैदा की जा सकती हैं। भारत को इसके कृषि क्षेत्र और कृषि आधारित औद्योगिकीकरण के विकास और प्रबंधन के लिए एक अधिक केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। बढ़ती असमानता के कारण गरीबी कम होने की रफ़्तार धीमी है, रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑक्सफाम ने गणना की है कि अगर भारत में असमानता को आगे बढ़ने से रोकना है, तो यह मॉडल 2019 के शुरूआती दौर में 9 करोड़ लोगों की अत्यधिक गरीबी को समाप्त कर सकता है।
इसके सुझावों में कम आय वाले खाद्य बाजारों का सृजन, आपूर्ति श्रृंखला में खाद्य अपशिष्ट को कम करना, छोटे-छोटे खेतों में तकनीकी सहायता, सूक्ष्म सिंचाई कार्यक्रम, संसाधन मुहैया कराना, दूरदराज के रोगियों की निगरानी और घातक रोगों से ग्रस्त गरीबों के स्वास्थ्य की देखभाल लागत को रोकना शामिल हैं।जाहिर है कि नई सदी में विकास की जो गंगा बही है उसमें दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को नहीं के बराबर हिस्सेदारी मिली। तेज विकास में बहुजनों की नगण्य भागीदारी आज सबसे बड़ा मुद्दा है, जिससे राजनीतिक दलों सहित मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग आँखे मूंदे हुए है।
प्रशिक्षण की जरूरत
जीएसटी लागू होने से बहुजन समाज के व्यवसाइयों को नियमों की जटिलताओं का सामना करना पड़ेगा। जीएसटी का पूरा नाम गुड्स एंड सर्विस टैक्स है, जो केंद्र और राज्यों द्वारा लगाए गए 20 से अधिक अप्रत्यक्ष करों के एवज में लगाया जा रहा है। जीएसटी लागू होने के बाद सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी, सर्विस टैक्स, एडिशनल कस्टम ड्यूटी (सीवीडी), स्पेशल एडिशनल ड्यूटी ऑफ कस्टम (एसएडी), वैट/सेल्स टैक्स, सेंट्रल सेल्स टैक्स, मनोरंजन टैक्स, ऑक्ट्रॉय एंड एंट्री टैक्स, परचेज टैक्स, लक्ज़री टैक्स खत्म हो जाएंगे। जीएसटी लागू होने के बाद वस्तुओं एवं सेवाओं पर केवल तीन तरह के टैक्स वसूले जाएंगे। पहला सीजीएसटी, यानी सेंट्रल जीएसटी, जो केंद्र सरकार वसूलेगी। दूसरा एसजीएसटी, यानी स्टेट जीएसटी, जो राज्य सरकार अपने यहां होने वाले कारोबार पर वसूलेगी। कोई कारोबार अगर दो राज्यों के बीच होगा तो उस पर आईजीएसटी, यानी इंटीग्रेटेड जीएसटी वसूला जाएगा। इसे केंद्र सरकार वसूल करेगी और उसे दोनों राज्यों में समान अनुपात में बांट दिया जाएगा।
आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने वाले युवाओं को बहुजन अर्थशास्त्र समझना पड़ेगा। जीएसटी से लेकर अन्य नियमों के बारे में प्रशिक्षण की जरूरत होगी। बहुजन समाज के पास देश का 90 प्रतिशत उपभोक्ता है जो व्यापार का मुख्य तत्व है। उत्पादन में सहायक तत्व श्रमिक भी बहुजन समाज के पास ही सर्वाधिक मात्रा में उपलब्ध है।
के. सी. पिप्पल, आईईएस (रिटायर्ड) पूर्व आर्थिक सलाहकार, भारत सरकार