जीएसटी की दरों में कटौती सिर्फ व्यापरी
वर्ग के लिए ही नहीं आम जनता के लिए भी राहत की बात है। लेकिन केंद्र सरकार द्वारा
जीएसटी की दरों में कटौती के समय पर सवाल खड़े हो रहें हैं, जो वाजिब हैं।
कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि बीजेपी ने चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए जीएसटी की दरों में कटौती की है। ये लोक लुभावना
फैसला वोटरों को लुभाने के लिए लिया गया है, लेकिन इस पर चुनाव आयोग का खामोश रहना और भी घातक है। विपक्ष के इन आरोपों पर चुनाव आयोग को संज्ञान लेना चाहिए था।
हालांकि कांग्रेस जीएसटी दरों में कटौती
का श्रेय राहुल गांधी के सिर बंधवाना चाहती है, इसी कड़ी में राहुल गांधी जीएसटी को
लेकर केंद्र सरकार पर अपने हमले जारी रख हुए हैं, उन्होंने कहा कि कांग्रेस किसी
कीमत पर ‘गब्बर सिंह टैक्स’ जनता के ऊपर नहीं थोपने देगी।
गौरतलब है कि बीते शुक्रवार 10 नवंबर को गोवा में हुई
जीएसटी काउंसिल की 23वीं बैठक में लोगों को बड़ी राहत देते हुए 210 वस्तुओं एवं
सेवाओं पर टैक्स की दरें घटा दी थी। इनमें से 180 आइटम्स 28% के स्लैब में
थे। अब इस स्लैब में महज 50
आइटम्स रह गए हैं, जिनमें जीएसटी
काउंसिल के मुताबिक शानो-शौकत की चीजें (लग्जरी आइटम्स) और अहितकर वस्तुएं (सिन
गुड्स) ही शामिल हैं। हालांकि,
सीमेंट और वॉशिंग मशीन जैसे बेहद जरूरी सामान
भी 28% के टैक्स स्लैब में अब भी मौजूद हैं, जिन्हें न लग्जरी
आइटम्स कहा जा सकता है न ही सिन गुड्स। बहरहाल, काउंसिल ने अन्य टैक्स
स्लैब में आनेवाली कुछ वस्तुओं एवं सेवाओं पर भी टैक्स में कमी की है।
आम आदमी को राहत मिली ये अच्छी बात है, सेहरा
किसी के भी सिर बंधे, इससे भी कोई मतलब नहीं। लेकिन जिस समय में ये दरें कम की गई
हैं उस पर चुनाव आयोग का चुप्पी साध लेना वाकई परेशान करने वाला है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि टी एन शेषन ने
चुनाव आयोग की ताकत को नई पहचान दी थी, उनसे पहले चुनाव आयोग की कार्यशैली की
आक्रामकता को लोग नहीं जानते थे। उनकी कार्यशैली के बाद सबको पता चला कि चुनाव
आयोग नाम की संस्था भी बड़ी ताकत रखती है ये बड़े-बड़े नेताओं को हिला सकती है,
चुनावों में कोई भी सत्ता पक्ष या विपक्ष चुनाव आयोग को प्रभावित नहीं कर सकता और
ना ही अपनी मनमानी कर सकता है, ये वर्क कल्चर टी एन शेषन ने ही स्थापित किया था।
लेकिन आज जो चुनाव आयोग हमें दिख रहा
है वो टी एन शेषन के कार्यकाल से पहले वाला दिख रहा है। जो कहीं न कहीं सत्ता से प्रभावित दिखता है। जिस पर बीच-बीच में सवाल भी ख़ड़े होते रहे हैं। ऐसे में जरूरत आन पड़ी है कि
चुनाव आयोग अपनी सांस्थानिक हत्या ना होने दे और अपने निहित विश्वास को बनाए रखने
के लिए कड़े कदम उठाए, जो बेशक सत्ता के खिलाफ ही क्यों न हों। वरना जनता के अंदर अविश्वास
का बीज तो रोपित हो ही गया है। जिससे लग रहा है कि ये संवैधानिक संस्था सत्ता के
इशारे पर ही चल रही है।